शंखनाद
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है फँसा गाँव फिर बाढ़ की दाढ़ में
तोड़ तटबंध को दानवी आ गयी
वृष, किसानों सहित खेत भी खा गयी
युद्ध इसबार कर तो रही झोंपड़ी
किंतु मिलने लगी अब चुनौती कड़ी
डिग रहे पाँव फिर बाढ़ की दाढ़ में
खोखला तंत्र ये खोखला ही रहा
दूरदर्शन तले भाषणों में बहा
वायदों की लड़ी आसमानी हुई
जस की तस ही मगर सब कहानी हुई
डूबते दाँव फिर बाढ़ की दाढ़ में
अब प्रतीक्षा यही, बीत जाए समय
और को लील पाए नहीं ये प्रलय
प्राण जिनके बचे, दीन जाएँ कहाँ?
दीखते बस भटकते यहाँ से वहाँ
खोजते छाँव फिर बाढ़ की दाढ़ में
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