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गीत-संगीत..मानवमन को शांति देने के दो ऐसे साधन जो कभी निष्फल नहीं जाते. गीत अथवा संगीत रचने, सुनने का अपना मनोवैज्ञानिक महत्त्व है जिसे आज मेडिकल साइंस भी मानता है. समय-समयपर इन दो साधनों ने समाज को जगाने का दायित्व बखूबी निभाया है. लेकिन अगर अमृत ही विष बन जाये तो इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी? जो चीज मानसिक विकारों को दूर करने के काम आये वो ही अगर विकृतियों का उत्प्रेरक बन जाये तो इसे क्या कहेंगे? किसी से छिपा नहीं कि यही स्थिति आज भोजपुरी गानों के साथ है. हर रोज आ रहा एक नया एल्बम भद्देपन की एक नयी कहानी लिखने को आतुर दीख रहा है. पान की दुकानों, ट्रैक्टरों, रिक्शेवालों के मोबाइल तथा अब तो धड़ल्ले से छात्रों के आईपोड पर बजते ये गाने किसी मन की चेतना को किस ओर मोड़ रहे हैं बताने की जरूरत नहीं. एक जमाना था जब इनके लिए द्विअर्थी शब्द का प्रयोग होता था लेकिन आज वो सब पीछे छूट चुका है. अब सीधे-सीधे रूप में महिलाओं के बारे में (यहांतक कि रिश्तों का नाम लगाकर भी) जैसे वाक्य/ भावार्थ इनमें प्रयुक्त होते हैं उनपर प्रशासन से लेकर समर्थ प्रबुद्ध जनों की चुप्पी आश्चर्यचकित करती है. महिलाएं भी ये आलेख पढ़ेंगी सो उन गानों में प्रयुक्त वाक्यों को इसमें स्थान देना भी मर्यादा का हनन प्रतीत हो रहा है किन्तु प्रसंग मात्र की दृष्टि से यहाँ कुछ उदाहरण लिख रहा हूँ….
(१) केकरा संगे सुतबु बोला टंगरी पसार के (किसके साथ पैरों को फैला के सोओगी)
(२) गोरी कैलू ह राते तू कवन खेल..अभी ले महके कडुआ तेल (सुंदरी रात को कौन सा खेल खेला जो सरसों तेल की महक अबतक आ रही)
(३) लहंगा उठा के चुम्मा ले ला राजाजी (अर्थ अलग से लिखने की जरूरत नहीं)
(४) बताव हे गोरी हमरा गन्ना के रस तोरा ढ़ोंडी में सही-सही जा ता कि न (बताओ सुंदरी मेरे गन्ने का रस तुम्हारी नाभि में सही-सही जा रहा या नहीं, अब यहाँ गन्ने के रस और नाभि का मतलब समझाना नहीं पड़ेगा)
आपलोग खुद सोचिये..क्या इस तरह के गाने बनने/ बजने ये योग्य है?? ये तो महज चार नमूने हैं. पकते चावल के चार दाने..पूरी हांडी का तो कहना ही क्या.
उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष पर आक्षेप करने का नहीं है. ऐसे गाने बनाने तथा इनपर आँखें मूंदे रहनेवाली व्यवस्था से मेरा प्रश्न है कि एक ओर नारी सम्मान..महिला चिंतन आदि बड़ी-बड़ी बातें होती हैं दूसरी ओर ऐसे गानों की धड़ल्ले से बिक्री…इसे क्या कहा जाये??
एक बड़ा वाहियात सा तर्क ऐसे गानों के पक्ष में दिया जाता है कि इनकी समाज के एक वर्ग में मांग है सो ये बनते है…तो मैं ये तर्क देनेवालो से पूछना चाहता हूँ कि समाज के ही एक वर्ग में तो मांग चरस, गांजा, कोकीन की भी है..क्या हम खुद खुल्लमखुल्ला ला-लाकर बाँटे इनको अपने गली-मोहल्लों में?
ऐसे गानों को प्रोत्साहित करनेवाले खुद के घर की औरतों से कैसे आँखें मिलाते होंगे मेरी समझ से बाहर है. ऐसा नहीं है कि इन गानोंपर किसी का ध्यान नहीं गया..या आवाज नहीं उठी…किन्तु हरबार परिणाम वो ही ढाक के तीन पात. इस सिलसिले का अंत कभी होगा भी या नहीं ये चिंता का विषय है…
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