दोहा मुक्तिका – हम तो बने पतंग शंखनाद यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || भाव सभी पाने लगें, शब्दों का यदि संग।
जाने इस संसार का, क्या होगा तब रंग।
तम के कारागार में, अरसे से हैं आप,
हँस लेते कैसे सदा, देख हृदय है दंग।
नयी समस्या आ रही, मुँह बाये क्यों नित्य,
बदल जरा देखो प्रिये, अब जीने के ढंग।
कितने हैं जो पा रहे, प्रेम-नगर में शांति,
अपनी मित्रों बन गई, एक रात ही जंग।
अधरामृत कब के पिया, अबतक चढ़ा खुमार,
जबकि उतर जाती रही, कुछ घंटों में भंग।
उसने भी लगता किया, कभी अंधविश्वास,
घूम रहा है आजकल, मारा, नंग-धड़ंग।
डोर किसी के हाथ में, घाती चारों ओर,
“गौरव” पूछो हाल मत, हम तो बने पतंग।
भाव सभी पाने लगें, शब्दों का यदि संग।
जाने इस संसार का, क्या होगा तब रंग।
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तम के कारागार में, अरसे से हैं आप,
हँस लेते कैसे सदा, देख हृदय है दंग।
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नयी समस्या आ रही, मुँह बाये क्यों नित्य,
बदल जरा देखो प्रिये, अब जीने के ढंग।
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कितने हैं जो पा रहे, प्रेम-नगर में शांति,
अपनी मित्रों बन गई, एक रात ही जंग।
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अधरामृत कब के पिया, अबतक चढ़ा खुमार,
जबकि उतर जाती रही, कुछ घंटों में भंग।
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उसने भी लगता किया, कभी अंधविश्वास,
घूम रहा है आजकल, मारा, नंग-धड़ंग।
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डोर किसी के हाथ में, घाती चारों ओर,
“गौरव” पूछो हाल मत, हम तो बने पतंग।
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