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सचिवालय के बड़ा बाबू सिन्हा साहब के घर पुलिस आई हुई थी| उनके लड़के को गिरफ्तार करने के लिये| लड़का बी.ए पार्ट वन का छात्र था और उसपर अपनी सहपाठिन के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में झूठी गवाही देकर अदालत को गुमराह करने, साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने तथा भोले-भाले निर्दोष युवकों पर बेबुनियाद इल्जाम लगा के उन्हें फंसाने की साजिश करने का आरोप साबित हो चुका था|
घर के बाहर मोहल्लेवालों की अच्छी-खासी भीड़ जमा थी| पड़ोस के शर्मा जी भी अपने कुछ जान-पहचानवालों के साथ खड़े ये तमाशा देखते हुए बतिया रहे थे – “अरे मिश्रा साहब, इसे तो सत्यवादी बनने का भूत चढ़ा था, अब लो भुगतो|” मिश्रा जी ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए झट से कहा – “अजी बिलकुल सही कह रहे हैं आप| अब भला इसे क्या पड़ी थी इस मामले में पड़ने की? इसका तो इससे कुछ लेना-देना भी नहीं था|” जायसवाल बाबू कहाँ चुप रहनेवाले थे, उन्होंने फरमाया – “इसका तो यही हश्र होना ही था| जब इसे मालूम था कि इस कांड का मुख्य आरोपी यहाँ के विधायक का बेटा है और सारा किया धरा भी उसी का है, तो फिर ये क्यों नाना पाटेकर बन रहा था? इसे तो मैंने समझाया भी था कि अरे, ये सब फिल्मों में ही अच्छा लगता है, असली जिंदगी में नहीं| लेकिन मेरी सुने तब न!” चौबे जी ने निष्कर्ष पर पहुँचते हुए कहा – “अब छोड़िये भी साहब, समझाया तो उसे जाता है जिसमें अक्ल हो, ये लड़का तो निरा बेवकूफ है निरा बेवकूफ|” पुलिस लड़के को ले के जा चुकी थी|
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