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मानवतावादी और उनका मानवधर्म

शंखनाद
शंखनाद
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मनुष्य का मूल स्वभाव धार्मिक होता है| कोई भी मनुष्य धर्म से पृथक होकर नहीं रह सकता| मनुष्य के अन्दर आत्मा का वास होता है जो की परमात्मा का अंश होती है| फिर मनुष्य धर्म और ईश्वर से अलग कैसे हो सकता है| मनुष्य का मूल अध्यात्म है और रहेगा| इस दुनिया की कोई भी चीज चाहे वो सजीव हो या निर्जीव, अपनी प्रकृति के विपरीत आचरण करके ज्यादा दिनों तक अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती| जो मनुष्य अपनी मूल प्रकृति के विपरीत आचरण शुरू कर देते हैं उनका अंत हो जाता है| ये अंत भौतिक नहीं बल्कि आतंरिक होता है| मनुष्य अपनी काया से तो जीवित दिखता है परन्तु उसकी मानवता मर जाती है| वो पशु से भी बदतर हो जाता है|

कुछ लोग जो स्वयं भी अपनी मूल धारा के विपरीत गमन करते हैं और अपनी कुटिल चालों और भरमाने वाली भाषा के प्रयोग से अन्य लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए उकसाते हैं, कभी भी मानव नहीं हो सकते| खुद को वो चाहे कितना भी “मानवतावादी” बताते रहें और कहते रहें की वो अपने “मानवधर्म” का पालन कर रहे हैं, ये कदापि सत्य नहीं होता| ऐसे “मानवतावादियों” ने ही आज धरती को नर्क बना के रख दिया है| जहाँ धर्म का लोप हो जाता है वहाँ अधर्म अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है| अधर्म में न कोई नैतिकता है न कोई मर्यादा| उसमें सिर्फ और सिर्फ भोगलिप्सा और कभी न खत्म होने वाली वासनाएं हैं| ये वासनाएं न तो मनुष्य को जीने देती हैं और न ही मरने देती हैं| धर्म को अपनाये बिना इनका त्याग असंभव है|

मानवता के नाम पर चलनेवाले गोरखधंधे में सब कुछ होता है| दानवता का नंगा नाच देखना हो तो उन लोगों को देखिये जिन्होंने धर्म को त्याग दिया है| ऐसे लोग खुलेआम आधुनिकता की अंधी दौड़ का समर्थन करते मिलेंगे| उनके लिए प्रेम महज एक वासनापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं| शीलता को छोड़ के भौंडेपन का प्रचार भी यही मानवतावादी करते हैं| मर्यादाहीनता को निजी मामला बताना हो अथवा हिंसा के प्रति दोहरा रवैया, सब इन्हीं कथित मानवतावादियों की देन है| नशीली वस्तुओं यथा शराब, ड्रग्स आदि इनके लिए मनोरंजन के साधन मात्र हैं| दूसरों को स्वार्थ से दूर रहने की शिक्षा देने वाले ये लोग स्वार्थ में आकंठ डूबे रहते हैं| आज अगर छीनने की भावना बढ़ी है तो इसका कारण यही मानवतावादी हैं जो अपनेआप को सफलता के उस शिखर पर देखना चाहते हैं जहाँ कोई और न पहुंचा हो|

धर्म की गलत व्याख्या करके ये अपनेआप को सबसे बड़ा बुद्धिमान समझ लेते हैं| दो-चार घटिया किस्म की किताबें पढ़ के ये खुद को दार्शनिक समझने लगते हैं| सत्य न कभी पराजित हुआ है और न कभी होगा| धर्म ही जीवन का आधार है| मनुष्य को मोहमाया के बंधनों से कोई मुक्त कर सकता है तो वो केवल धर्म है| सच्चाई तो ये है की “मानवता” की शिक्षा भी मनुष्य को धर्म ने ही दी है| धर्म ने ही मनुष्य को जीवमात्र से प्रेम करना सिखाया है| ईर्ष्या, द्वेष जैसे दुर्गुणों के लिए धर्म में कोई स्थान नहीं है| इन चीजों से धर्म को यही “मानवतावादी” जोड़ते हैं और लोगों को भरमा के अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं|

धर्म तो जीवन है| शाश्वत है, सत्य है| इसको नकारना अपनी अल्पबुद्धि का परिचय देने से अधिक और कुछ भी नहीं है| कोई स्वयं को ही नकारे तो इसे और क्या कहा जायेगा| संसार में आज अगर अपराध है तो उसका कारण लोभ है, वासना है| दुनिया में जो सिर्फ एक आगे निकलने की भावना बढ़ी है उसका कारण मनुष्य की अनंत इच्छाएं हैं| मनुष्य आज स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा है तो इसकी एकमात्र वजह मनुष्य का धर्म से दूर होना है| अपने मन पर नियंत्रण अत्यंत जरूरी है| मानव और दानव में यही अंतर होता है| दानव अपने मन का गुलाम हो उसके अधीन हो जाता है और मानव अपने मन को अपने अधीन रखता है| अब ये निर्णय तो मानव को ही करना होगा की वो मानव बनना चाहता है या दानव|

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