Menu
blogid : 9509 postid : 265

आरोपों की राजनीति

शंखनाद
शंखनाद
  • 62 Posts
  • 588 Comments

“आरोप” एक ऐसा टैग है जो चाहे-अनचाहे हर किसी के साथ किसी न किसी रूप में लग ही जाता है| इससे इस संसार में कोई अछूता नहीं| चाहे वो अच्छा हो या बुरा, चोर हो या संत, हर कोई इससे दूर भागता है लेकिन आरोप उसका पीछा नहीं छोड़ते और अंततः चिपक ही जाते हैं| आरोप लगानेवालों ने तो भगवान को भी नहीं छोड़ा फिर इन्सान क्या चीज है| अब ये अलग बात है कि कहीं ये आरोप सही होते हैं और कहीं बिलकुल निराधार| खैर जो भी हो ये आरोप कम से कम हमारे लोकतंत्र में एक ऐसे अचूक अस्त्र के रूप में सामने आये हैं जिनकी सफलता की गारंटी दी जा सकती है| भले ही ये अपने लक्ष्य को पूरी तरह से भेद न पाएं किन्तु उसे इतना क्षतिग्रस्त अवश्य कर देते हैं की आनेवाले दिनों में उसे तोडना थोडा आसान हो जाता है|

आरोप-प्रत्यारोप का ये खेल भारतीय राजनीति में कोई नई बात तो नहीं लेकिन अब इसका बड़ा ही घृणित स्वरुप सामने आ रहा है| आरोपों का सही जवाब देने के बजाये उलट के आरोप लगा देना आजकल आम हो गया है| ऐसा आजकल के उन आन्दोलनों में खूब हो रहा है जो जनता की आवाज बन के उभर रहे हैं| जनता जिनपर भरोसा कर रही है| सरकार जब ऐसे आन्दोलनकारियों से परेशान हो रही है तो फटाफट उनके इतिहास को खंगालना शुरू कर दे रही है की कहीं कोई कमी मिले और उस आग को दबाया जा सके जो सरकारी कुर्सी जलाने को आतुर है| इस काम के लिए बेशर्मी की सारी हदें पार की जा चुकी हैं| लेकिन शर्म तो उसे आती है जिसकी कोई इज्जत हो| जहाँ इज्जत ही नहीं वहां शर्म कैसी| अपना आज का कहा कल और कल का कहा परसों पलटने वालों से शर्मिंदा होने की अपेक्षा करना ही बेवकूफी है|

चलिए इसके कुछ उदाहरण भी देख लिए जायें और वो भी बिलकुल ताजातरीन| सबसे पहले बात आदरणीय स्वामी रामदेव जी की| उनपर तो केंद्र सरकार ने ऐसा रवैया अपना रखा है जैसे की वो कोई तड़ीपार अपराधी हों| उनपर टैक्स चोरी, ट्रस्ट के पैसों में हेरा-फेरी, गलत तरीके से अपनी संपत्तियों के संचालन और तो और उनके परम मित्र बालकृष्ण को “विदेशी” बताकर गलत तरीके से भारतीय पासपोर्ट लेने, उनकी शैक्षिक डिग्रियों के फर्जी होने जैसे आरोप लगे हुए हैं और इन्हीं आरोपों के दमपर सरकारी मशीनरी इनसे निपटने का दिवास्वपन देख रही है| अब थोडा सा पीछे जाते हैं ज्यादा नहीं ७-८ साल पहले जब उत्तराखंड में कांग्रेस की एन.डी तिवारी की तथा केंद्र में UPA-१ की सरकार थी और पतंजलि योगपीठ का भव्य उद्घाटन समारोह हुआ था| उस समारोह में कांग्रेस के कई केन्द्रीय नेता, केन्द्रीय मंत्री और स्वयं मुख्य मंत्री तिवारी जी बड़ी श्रद्धा से पहुँच गए थे| भाजपा उस समय न तो राज्य में और न ही केंद्र में सत्तासीन थी| इन्हीं कांग्रेसी महानुभावों ने मुक्तकंठ से स्वामी जी की तारीफों के पुल बांधे थे| ऊपर से पतंजलि योगपीठ को विश्व-विद्यालय का दर्जा देते हुए स्वामी जी को उसका कुलाधिपति नियुक्त कर दिया था| उस समय स्वामी जी सही थे? उनकी वर्त्तमान कम्पनियाँ उनकी नहीं थी? उनके किसी खाते में गड़बड़ी नहीं थी? आचार्य बालकृष्ण “विदेशी” नहीं थे? उनकी सभी डिग्रियां वैध थी? सच तो ये है की बाबा उस समय कांग्रेस के खिलाफ नहीं थे| उन्होंने तब वो मुद्दे नहीं उठाये थे जो उन्होंने आज उठाये हैं|

इसी तरह का दूसरा उदाहरण अन्ना जी का है| जिनके पास अपना कहने के लिए कोई बड़ी संपत्ति नहीं है| उनके खिलाफ सरकार पागलों की तरह मामले ढूंढ रही है| एक दो हवा-हवाई तो सुनने में भी आये थे| इसी तरह से केजरीवाल जी के खिलाफ नौकरी छोड़ने में सभी मानदंडों का पालन न करने का सालों पहले का मामला निकाल दिया गया| किरण बेदी जी के खिलाफ भी एयर टिकट मामले में हेराफेरी होने का तमाशा किया गया| इसी तरह से बेसिरपैर के आरोप लगभग सभी टीम अन्ना सदस्यों पर हमेशा लगते रहते हैं| लगते हैं, कुछ दिन मीडिया की सुर्खियों में रहते हैं और फिर पानी के बुलबुले की तरह गायब हो जाते हैं| सच्चाई हो तब तो बात आगे बढ़े|

जननेता तो जननेता, ये नेता तो अपनों को भी नहीं छोड़ते| अब जगनमोहन रेड्डी साहब को ही ले लीजिये| उनके पिता को कांग्रेस ने बड़े सम्मान से आंध्र प्रदेश का मुखिया बना रखा था और उन्हें माननीय सांसद| उनके पिता के निधन के बाद जब जगनमोहन रेड्डी साहब ने खुद को आगे बढाया और नजरअंदाज किये जाने के बाद कांग्रेस छोड़ के अपनी अलग पार्टी बनाई तो कांग्रेस को अचानक से उनकी आय से अधिक संपत्ति नजर आ गई और सीबीआई को उनके पीछे लगा के उन्हें भीतर करवा दिया| यहाँ भी गारंटी से कहा जा सकता है की अगर अभी जगन फिर से कांग्रेस का दामन थाम लें तो वो फिर से साधू हो जायेंगे| यही आरोप लगाने वाले उनके आरोपों पर सफाई देते फिरेंगे|

अरे ये सब तो छोटे से उदाहरण हैं| ऐसे मामलों की भरमार है| मुझे तो ये समझ में नहीं आता की आरोप विरोधियों पर ही क्यों लगते हैं? और अगर लगते हैं तो उनके वापस समर्थक बनते ही गायब कैसे हो जाते है? पता नहीं ये लगानेवाले आरोप भांग पी के लगाते हैं या नशा खा के| तुरंत कुछ, तुरंत कुछ| दरअसल ये आरोप नहीं बल्कि एक नकेल है जिससे आरोपी को मनमाने ढंग से संचालित करने की कोशिश की जाती है| और उसके वापस रास्ते पर आते ही ये आरोप भी गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाते हैं| सोचिये हमारे देश की व्यवस्था का कितना मजाक ऐसे “आरोप” रोज उड़ाते हैं| हमारा पूरा सिस्टम एक तमाशा बन के रह गया है| जब तक ऐसे आरोपों की राजनीति होती रहेगी न देश का भला होगा और न ही जनता का और न ही राजनीति का| जितनी जल्दी ये मानसिकता बदले उतना ही अच्छा है| अन्यथा एक दिन ये “आरोप” शब्द स्वयं ही आरोपित हो के रह जायेगा|

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply