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विपक्ष की भूमिका – Jagran Junction Forum

शंखनाद
शंखनाद
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हमारा देश भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. जनता चुनावों के माध्यम से अपना प्रतिनिधि चुनती है, उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक विकल्प का चयन करने के लिए स्वतंत्र होती है. इसमें जनता की इच्छा के अनुरूप जो राजनीतिक दल (या गठबंधन) बहुमत में आता है अर्थात कुल निर्वाचित सीटों का दो तिहाई बहुमत प्राप्त करता है वो जनता के प्रतिनिधि के रूप में ५ सालों तक (सामान्य परिस्थितियों में) सत्तासीन हो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है. निर्वाचित सरकार के अलावा एक या अधिक दल संसद में ऐसे भी होते हैं जिन्हें चुनावों में उस तबके का समर्थन/वोट मिला होता है जो सत्तासीन वर्ग को नहीं मिल पाता है. निश्चित रूप से उस दल या दलों की सदस्य संख्या सदन में अल्पमत में होती है. उन दलों में जो दल चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित मापदंडों को पूरा करता है उसे सदन में ‘मुख्य विपक्षी दल’ और उसके द्वारा चयनित नेता को ‘विपक्ष के नेता’ की मान्यता दी जाती है.

वस्तुतः ये व्यवस्था इसलिए होती है ताकि निर्वाचित सरकार अपने आप को सर्वेसर्वा न समझ बैठे. वो तानाशाह न बन जाये. विपक्ष की भूमिका उस महावत की तरह होती है जो मदमस्त चल रहे हाथी को अंकुश लगाते हुए सही रास्ते पर रखता है.

आज हमारे देश में ये भूमिका पहले सत्तासीन (१९९८-२००४) हो चुकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिली हुई है. भाजपा देश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. उसकी नेता श्रीमती सुषमा स्वराज जी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष पद पर है. यही भूमिका राज्यसभा में श्री अरुण जेटली जी को प्राप्त है.

विगत कुछ महीनों में भारतीय जनता पार्टी के द्वारा कई गरमागरम मुद्दे सदन में उठाये गए. इनमें 2G स्पेक्ट्रम, बढती मंहगाई, पेट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते मूल्य, आदर्श घोटाला, इत्यादि शामिल हैं. 2G स्पेक्ट्रम और आदर्श हाऊसिंग मामले में तो इतना हंगामा हुआ की संबधित नेतृत्व को ही बदलना पड़ा. CAG की रिपोर्ट 2G मामले पर मिलने के बाद भाजपा द्वारा सक्रियता से आवाज उठाने के बाद ही सरकार ए राजा जैसे भ्रष्ट को हटाने पर मजबूर हुई. भारतीय जनता पार्टी ने संयुक्त संसदीय समिति से इसकी जांच भी कराये जाने की अपनी मांग मनवाने में सफलता हासिल की. इसी तरह के कुछ अन्य मामले भी हैं जहाँ भाजपा सरकार पर कुछ हद तक दबाव बनाने में सफल हुई है. लेकिन यहाँ सवाल ये उठता है की क्या सिर्फ हल्ला-हंगामा करके अपनी बात मनवाना ही विपक्ष का काम है? सिर्फ सम्बंधित मंत्री या अधिकारी को बदलवा के अपनी पीठ ठोकना समझदारी है. साल २००४ जब से कांग्रेस सत्ता में आई है उसने कई ऐसी आत्मघाती गलतियाँ की हैं जिनके बारे में अगर सकारात्मकता से एकजुट होकर जनता को बताया जाता तो आज कांग्रेस सत्ता से बाहर होती. सत्ता में आने के बाद कांग्रेस द्वारा –

१. मनमोहन सिंह जी जैसे व्यक्तिगत योग्य किन्तु राजनीतिक रूप से अक्षम नेता को सामने रख के एक परिवार विशेष द्वारा परोक्ष शासन.

२. दागी मंत्रियों की लम्बी फेहरिस्त.

३. छद्म धर्मनिरपेक्षता.

४. आतंकवाद के मोर्चे पर राजनीतिक नरमी.

५. पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा ‘आतंकवादी हमारे भाई हैं’ जैसा बेशर्म बयान.

६. संसद पर हमले के आरोपियों के प्रति सहानुभूति.

७. मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान पर दबाव बनाने में असफलता.

८. ‘हिन्दू आतंकवाद’ जैसी हवा-हवाई बात को उछालना.

ये सब कुछ वो बातें हैं जिनका सही से विश्लेषण जनता के सामने किया जाना जरूरी था. भाजपा तो जैसे एक असमंजस में खुद ही रहती है. आज कुछ कहना और कल पलट जाना उसकी खास आदतों में शुमार हो चूका है. अलग-अलग नेताओं के अलग-अलग बयान रही सही कसर पूरी कर देते हैं. मंहगाई के मुद्दे पर कांग्रेस जनता को यकीन दिलाने में सफल होती है की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय स्तर से बढ़ रही हैं और इसमें उसका कोई दोष नहीं, वहीँ भाजपा ये नहीं समझा पाती की कीमतें केंद्र की गलत नीतियों से बढ़ रहीं हैं. स्वामी रामदेव जी ने जिस काले धन का मुद्दा उठाया वो जानदार था. भाजपा भी इसका उपयोग कर सकती थी, लेकिन उसने सिर्फ शपथ पत्र भर के इस मामले की इतिश्री कर दी. भाजपा एक राजनीतिक दल के रूप में खुद से जूझ रही है. सिर्फ यही नहीं, भाजपा इतने सालों बाद भी विपक्षी दलों में एकता बनाने में असफल रही है. कई दल ऐसे हैं जो बैठते विपक्ष में हैं और वोट सरकार को देते हैं. खुद NDA में भी एकराय नहीं बन पाती. ये भाजपा की नाकामी है. भाजपा खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने में पूरी तरह से असफल हो चुकी है. तीखे तेवरों के लिए जाने जानेवाले कई नेताओं में जैसे एक डर सा बैठ गया है. हताशा भर गई है उनमें.

विपक्ष की ऐसी हालत किसी भी लोकशाही के लिए एक अशुभ संकेत है. विकल्पों का अभाव ही तानाशाही भावना को जन्म देता है. भाजपा को कांग्रेस फोबिया से निकल कर ‘सहज और सकारात्मक’ तब आक्रामक बनना होगा. अन्यथा वो सिर्फ संसद से सड़क तक नारेबाजी में सीमित रह जाएगी.

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