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जागरूक/जिद्दी राज्य बनाम संवेदनशील/ढुलमुल केंद्र

शंखनाद
शंखनाद
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हाल के कुछ दिनों में कुछ खबरें लगभग सभी अखबारों और समाचार चैनलों में छाई हुई थी, इनमें NCTC का मुद्दा और RPF को पुलिस समान दर्जा दिए जाने का मामला मुख्य था. इनमें RPF का मामला अभी विचाराधीन लगता है जबकि NCTC जो एक मार्च से प्रभावी होने जा रहा था ठंढे बस्ते में जाता दिख रहा है. ये दोनों ही मामले प्रत्यक्ष रूप से आम जनता से जुड़े हुए थे. उसी आम जनता से जिसकी दुहाई सभी राजनीतिक पार्टियाँ चौबीसों घंटे देती हैं, जिनके अधिकारों और सम्मान के लिए लड़ने का दावा करती हैं, चुनावों में नारे लगा-लगा के वोट मांगती हैं, घोषणापत्रों में बड़े-बड़े दावे करती हैं.

परन्तु जब कुछ करने का, कुछ साबित करने का वक्त आता है उस समय सस्ते और घटिया राजनीतिक हित हावी हो जाते हैं. उस समय ऐसी स्थिति बना दी जाती है जैसे कोई बहुत बड़ी बात होने जा रही हो. आरोप-प्रत्यारोप का पुराना खेल शुरू हो जाता है. कायदे-कानून से लेकर संविधान तक की दुहाई दी जाने लगती है. क्या मेरा-क्या तेरा का झगडा शुरू हो जाता है. जनता बेचारी हमेशा की तरह घबराई हुई देखती रह जाती है, अंत में हार के कोई एक चाहा-अनचाहा स्टैंड ले के आपस में उलझ जाती है, और सियासतदान अपनी जीत की खुशियाँ मनाने लगते हैं.

सच्चाई यही होती है की जीत जनता को कभी-कभी ही नसीब होती है. ज्यादातर अवसरों पे यह सियासी पार्टियों के ही हाथ लगती है. चाहे वो काले धन की वापसी का मामला हो या सशक्त लोकपाल बिल, हर बार ये राजनेता चाहे वो किसी भी पार्टी से सम्बद्ध हों, संसद और विधान सभाओं को सर्कस का मैदान बना के तमाशे दिखाने लगते हैं और पब्लिक का ध्यान मुख्य मुद्दे से भटका देते हैं.

खैर ये तो पुरानी बातें हो चुकी हैं, बात अगर हॉट केक की जाये तो NCTC और RPF का मामला सामने आता है. बात पहले NCTC की, यह केंद्र सरकार द्वारा की गई एक स्वागत योग्य पहल थी. इसमें इस एजेंसी को किसी आतंकी साजिश का अंदेशा होने पर खुद से तलाशी लेने का, और गिरफ्तारियाँ करने का अधिकार दिया गया था. न जाने राज्यों को इसमें कहाँ अपने अधिकारों का हनन होता हुआ नज़र आ गया और कुछ राज्य बहुत सख्ती से इसके विरोध में आ खड़े हुए. हमारा देश ऐसे कई आतंकी हमलों का शिकार हुआ है जिनमें केन्द्रीय एजेंसी द्वारा पूर्व-सूचना मिलने पर भी राज्यों के द्वारा लापरवाही बरती गयी है. उन पूर्व-सूचनाओं को नजरंदाज किया गया है. ऐसे में एक ऐसी एजेंसी क्यों न हो जो सूचना मिलने पर स्वयं कार्रवाई कर सके बजाये सम्बंधित राज्य सरकार को सूचना देने में समय बर्बाद करने में. ठीक है की ये मान लिया जाये की विधि-व्यवस्था राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती हैं. लेकिन राज्य सरकारों की पहली जिम्मेदारी अपने नागरिकों की खुशहाली भी होती है उन्हें ये भी ध्यान रखना चाहिए. बात अगर संविधान की की जाये तो समवर्ती सूची के तहत केंद्र के अधिकारों को अधिक व्यापक बनाया गया है.

इस मामले में वास्तव में थोड़ी गलती केंद्र सरकार की ओर से भी हुई. केंद्र को राज्यों को इस एजेंसी की उपयोगिता को ठीक से सहयोगात्मक तरीके से समझाना चाहिए था बजाये उन पर ये क़ानून थोपने के. केंद्र ने मामला अचानक से थोपा और विरोध होने पर तुरंत अपने पैर पीछे कर लिए.

कुछ इसी तरह का हाल RPF को पुलिस के समान अधिकार देने के मामले में होने जा रहा है. कुछ राज्यों ने फिर से सिर्फ विरोध के लिए विरोध दिखाया है. इन दोनों ही मामलों में विरोध करने वाले ज्यादातर राज्य सरकारों के मुखिया केंद्र सरकार के विरोधी दलों से थे (अगर पश्चिम बंगाल की बात छोड़ दें तो). विरोधी दलों के द्वारा विरोध कभी-कभी संवैधानिक और नीतिगत जागरूकता कम जिद ज्यादा लगता है. राजनीतिक अहं कभी-कभी लोकहित से ऊपर हो जाता है.

साथ ही साथ इन दोनों मामलों में जो रवैया केंद्र सरकार की तरफ से अपनाया जा रहा है उससे तो यही लगता है की या तो केंद्र सरकार, राज्यों की भावनाओं के प्रति बेहद संवेदनशील है या फिर अपनी नीतियों के प्रति ढुलमुल. केंद्र और राज्य भारत देश की ऐसी इकाइयाँ हैं जिनका बेहतर सामंजस्य ही जनता के काम आ सकता है विरोध नहीं.

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